Tuesday, 16 August 2011

लीला-पुरुषोत्तम हैं श्रीकृष्ण

श्रीकृष्ण ने जन्म के साथ ही लीला आरंभ कर दी थी और जीवन-भर लोकहित में लीलाएं करते रहे..। यही कारण है कि वह बन गए लीला पुरुषोत्तम। बता रहे हैं डॉ. अतुल टण्डन..
श्रीराम एवं श्रीकृष्ण दोनों ही भगवान विष्णु के अवतार माने गए हैं, परंतु दोनों की प्रकृति और आचरण में काफी भिन्नता है। श्रीराम ने कठिन से कठिन परिस्थिति में भी मर्यादा का अतिक्रमण नहीं किया। वे 'मर्यादा पुरुषोत्तम' कहलाए। वहींश्रीकृष्ण का अवतरण विपरीत परिस्थितियों में हुआ। माता देवकी और पिता वसुदेव अत्याचारी कंस के कारागार में बंदी थे। अपने अविर्भाव से स्वधाम-गमन तक श्रीकृष्ण ने इतनी विविधता के साथ तमाम लीलाएं कीं कि वे बन गए 'लीला-पुरुषोत्तम'।
अनंत लीला-विलास
पौराणिक ग्रंथों व कथाओं में भगवान श्रीकृष्ण का लीला-विलास अनंत है। जन्म लेते ही चतुर्भुज-रूप में प्रकट होकर फिर छोटा बालक बन जाना, कारागार के पहरेदारों का सो जाना तथा पिता वसुदेवजी की हथकड़ी-बेड़ी एवं दरवाजों का स्वयं खुल जाना, यमुना में बाढ़ आने पर भी रातोंरात बालक श्रीकृष्ण का गोकुल पहुंच जाना, सामान्य बातें नहीं थीं।
अपनी छठी के दिन ही राक्षसी पूतना का शिशु श्रीकृष्ण ने संहार कर दिया। यशोदा माता को मुख के अंदर ब्रह्मांड दिखलाना, ब्रह्माजी को सबक सिखाने के लिए गोप-बालक और बछड़ों की नवीन सृष्टि करना, अक्रूर जी को मार्ग और जल के अंदर एक ही साथ दोनों जगह एक ही रूप में दर्शन देना तथा बालकृष्ण द्वारा काकासुर की गर्दन मरोड़कर उसे फेंक देना आश्चर्यजनक था। बचपन से ही श्रीकृष्ण ने अपनी बाललीला में कंस द्वारा भेजे गए राक्षसों का वध करना शुरू कर दिया। तृणावर्त, केशी, अरिष्टासुर, बकासुर, प्रलंबासुर, धेनुकासुर जैसे बलवान राक्षसों को उन्होंने मार डाला। हयासुर, नरक, जंभ, पीठ, मुर आदि असुरों का भी उन्होंने ही संहार किया। बाल्यावस्था में ही कालिया नाग के सहस्र फणों पर नृत्य करके उसे यमुना जी से भगा दिया। मात्र सात वर्ष की अवस्था में गिरिराज गोव‌र्द्धन को अपने बाएं हाथ की छोटी अंगुली पर धारण करके मूसलाधार वर्षा से ब्रजवासियों की रक्षा की तथा देवराज इंद्र का घमंड चूर कर डाला।
चीरहरण-लीला के माध्यम से श्रीकृष्ण (ब्रह्म) ने गोपियों (जीवात्माओं) को यह समझा दिया कि जब तक जीव अज्ञान के आवरण में रहेगा, तब तक परमात्मा से उसका मिलन न हो सकेगा। इस लीला का एक अन्य अभिप्राय जीव का देहाभिमान समाप्त करना है। श्रीकृष्ण की रासलीला का भी बड़ा गूढ़ अर्थ है। इसमें भोग-विलास जरा-सा भी नहीं है। रासलीला करके उन्होंने यह संकेत कर दिया कि जब जीव गोपी-भाव धारण करके अपना सर्वस्व श्रीकृष्ण (ईश्वर) को समर्पित कर देता है, तब वह उन सर्वेश्वर का कृपापात्र बन जाता है।
मथुरा में भी लीला
मथुरा लौटकर श्रीकृष्ण ने क्रूर कंस का वध करके माता-पिता को कारागार से मुक्त कराया। माता देवकी के आग्रह पर उन्होंने कंस के द्वारा मारे गए उनके छह पुत्रों को उनसे पुन: मिलवाया। गुरु संदीपनि मुनि के मृत पुत्र को यमलोक से लाकर उसे वापस सौंप दिया। श्रीकृष्ण के अतिरिक्त ऐसे असंभव कार्यो को आज तक कोई अन्य संभव नहीं कर पाया। जरासंध के वध के पीछे भी श्रीकृष्ण की ही लीला थी, जब उन्होंने ब्रज में सोते हुए पुरवासियों को सहसा द्वारका पहुंचा दिया। इसी तरह जब पांडव द्यूतक्रीड़ा में सब कुछ हार गए, तब दु:शासन द्रौपदी को राजसभा के बीच खींच लाया और चीरहरण करने लगा। द्रौपदी की पुकार सुनकर श्रीकृष्ण ने उसके सम्मान की रक्षा की लीला रची।
महाभारत के युद्ध में पांडव श्रीकृष्ण की लीला के कारण ही विजयी हुए। युद्ध के पूर्व किंक‌र्त्तव्यविमूढ़ अर्जुन को अपना विराट रूप दिखाकर तथा गीता सुनाकर श्रीकृष्ण ने न सिर्फ उनका मनोबल बढ़ाया, बल्कि सारथी बनकर उनकी विजय का मार्ग भी प्रशस्त किया। पांडव-वंश की रक्षा करने के उद्देश्य से अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के पुत्र को जीवन-दान दिया। श्रीमद्भागवत महापुराण में लिखा है कि भगवान श्रीकृष्ण ने जिस देह से एक सौ पच्चीस वर्ष तक लोकहित में विविध लीलाएं कीं, वह देह भी अंत में किसी को नहीं मिली।
श्रीकृष्ण की प्रत्येक लीला हमें जीवन जीने की कला सिखाती है। जगद्गुरु बनकर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को संबोधित करते हुए हमें 'गीता' के रूप में जो उपदेश दिए हैं, वे सदा समाज का मार्गदर्शन करते रहेंगे। वे नि:सदेह लीला-पुरुषोत्तम ही हैं। यही कारण है कि श्रीकृष्ण की स्तुति में कहा गया है-
नमो देवादिदेवाय कृष्णाय परमात्मने। परित्राणाय भक्तानां लीलया वपुधारिणे। अर्थात 'हे देवताओं में श्रेष्ठ श्रीकृष्ण, आप साक्षात् परमात्मा हैं। भक्तों के रक्षार्थ लीलाएं करने हेतु आप शरीर (अवतार) ग्रहण करते हैं।'

Mangal Dosh in Kundali

WD

स्कंधपुराण के अंवतिका खंड में मंगल ग्रह ही उत्पत्ति से जुड़ी रोचक कथा मिलती है कि अंधाकासुर नामक दैत्य ने शिव से वरदान पाया था कि उसकी रक्त की बूंदों से नित नए दैत्य जन्म लेते रहेंगे। इन दैत्यों के अत्याचार से त्रस्त जनता ने शिव की आराधना की। तब शिव शंभु और दैत्य अंधाकासुर के बीच घनघोर युद्ध हुआ।

ताकतवर दैत्य से लड़ते हुए शिवजी के पसीने की बूंदें धरती पर गिरीं, जिससे धरती दो भागों में फट गई और मंगल ग्रह की उत्पत्ति हुई। शिवजी के वारों से घायल दैत्य का सारा लहू इस नए ग्रह में मिल गया, जिससे मंगल ग्रह की भूमि लाल हो गई। दैत्य का विनाश हुआ और शिवजी ने इस नए ग्रह को पृथ्वी से अलग कर ब्रह्मांड में फेंक दिया। इस दंतकथा के कारण जिन लोगों की पत्रिका में मंगल भारी होता है, वह उसे शांत करवाने के लिए इस मंदिर में दर्शन और पूजा-अर्चना के लिए आते हैं। इस मंदिर में मंगल को शिव का ही स्वरूप दिया गया है।

पंडित दिप्तेश दुबे के अनुसार इसी जगह से भूमि पुत्र मंगल ग्रह की उत्पत्ति हुई है और कहीं से नहीं। इसीलिए यहां पर मंगल दोष की शांति की जाती है। दही और भात से यहां मंगल ग्रह की पूजा की जाती है। लाल वस्त्र, गेहूं, गुड, तांबा और कनेर के पुष्प मंगल ग्रह की ये पांच वस्तुएं है जिन्हें दान किया जाता है। मेष और वृश्चिक राशि के अधिपति स्वामी मंगल के मंगल दोष का निवारण सिर्फ यहीं किया जाता है।

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मंगलनाथ के पुजारी के महंत अमर भारती ने बताया कि स्कंदपुराण में बताया गया है कि भगवान शं‍कर के द्वारा मंगल की उत्पत्ति हुई है। अंधकासुर नाम के दैत्य से शिव ने यहां युद्ध किया था, उस दौरान उनके मस्तक से भूमि पर पसीना गिरा। तो भूमि के गर्भ से एक अंगार क्षीण लिंग उत्पन्न हुआ उसमें से बालक प्रकट हुआ। बालक ने प्रण कर लिया और इस तरह अंधकासुर का नाश हुआ। जिस किसी की भी पत्रिका में मंगल दोष है तो उसका निवारण उज्जैन के मंगलनाथ के दर्शन-पूजन से हो जाता है। यह पूरे विश्व का नाभि स्थल है। यही नहीं पृथ्वी का गर्भ स्थल भी यहीं है।

ज्योतिषाचार्य मनोहर गिरि से हमने पूछा कि आखिर क्या महत्व है इस स्थान का... तो उन्होंने कहा की जिस किसी की भी कुंडली में चौथे, आठवें और बारहवें स्थान पर मंगल हो तो यहां मंगल ग्रह की शांति कराई जाती है। यहा कई बड़ी हस्तियों ने मंगल दोष का निवारण कराया है। विश्व में मंगल दोष निवारण का यही एकमात्र स्थान है।

मंगलनाथ मंदिर के पुजारी देवेंद्र तिवारी ने दूध, दही और चावल से मंगल पूजा का महत्व बताया। कर्क रेखा और मध्य रेखा यहां से ही गुजरती है।